मंगलवार, 14 सितंबर 2021

 गालियों के भी जायके होते हैं

स्ट्रेट ड्राईव बाय सपन दुबे


नार्थ कोरियन अब गालियों का इस्तेमाल नहीं कर सकेंगे, अगर वे ऐसा करते पाए जाएंगे तो मौत की सजा दी जा सकती है। किम जोंग सरकार की ओर से यह चेतावनी जारी की गई है। भारत में गालियों को लेकर ऐसी सजा का बिल कभी पास नहीं हो सकता है। गालियों का इतिहास मानवीय सभ्यता जितना पुराना हो सकता है। भारत में कुछ किमी की दूरी पर वेशभूषा, खान-पान और भाषा-बोली के साथ गालियां भी भी बदल जाती हैं। जैसे की लखनउ की तहजीब ऐसी है कि कहा जाता है कि वहां लोग तहजीब को ताबीज बनाकर पहनते हैं। ऐसे में दो लखनवी की लड़ाई में एक ने गुस्से में कहा कि आप खामोश हो जाए अन्यथा आपकी अम्मी की शान में गुस्ताखी हो जाएगी। भारत में गालियां संस्कृति का हिस्सा हैं जो विवाह के समय कई बार प्रतिबिंबित होती हैं। जिसमें अनेक लोकगीतों के माध्यम से महिलाएं समधी-समधन, देवर, जेठ आदि को छेड़ती हैं और इसका बुरा भी नहीं माना जाता है इसे मनोरंजन की दृष्टि से देखा जाता है। विवाह में इवेन्ट मैनेजमेंट ने यह बहुमूल्य विरासत छीन ली है। सब कुछ रेडिमेट का दौर है। फाग के लोक गीत में भी गालियां को शुमार किया जाता रहा है जो कि होली के रंग को ज्यादा रंगीन कर देता है। हांलाकि अब इस विद्या का भी चलन खतम होता जा रहा है। न्यूज़ लांड्री के एक कार्यक्रम के दौरान बताया गया कि संक्षिप्त हिन्दी शब्द सागर द्वारा प्रकाशित नागरिप्रचारिणी सभा वाराणसी द्वारा 20 वर्ष के अथक प्रयास के बाद हिन्दी शब्दकोष की रचना की गई थी। पुस्तक का संपादन बाबू श्याम सुंदर दास ने किया और सहयोगी के रूप में रामचन्द्र शुक्ल, बाल कृष्ण भट्ट, जगमोहन वर्मा जैसे हिन्दी के प्रखांड जानकार थे। इस पुस्तक के मुताबिक चूतिया शब्द अश्लिल नही है। इनके मुताबिक इस शब्द का शाब्दिक अर्थ जड़ बुद्धि, मूर्ख आदि है। दुर्भाग्यवश गालियां महिलाओं को ही लक्ष्य करके गढ़ी गई हैं गोया की इस किले के सिंहासन पर भी पुरूष प्रधानता ही विराजित है। सोशल मीडिया पर गालियों के शार्ट फार्म विकसित हो गए हैं। ओटीटी की फिल्मों में गालियां उनकी यूएसपी है या यू कहें की धन कुटाई की फैक्ट्री में गालियां ही इसका मुख्य रॉ मटेरियल है। जिसमें पंकज त्रिपाठी जैसे प्रतिभावान कलाकार को व्यवसायिक समझौते के अंतर्गत गालियां बकनी पड़ रही हैं। भारतीय सिनेमा में बैंडेट क्वीन पहली फिल्म थी जिसमें गालियां चुभी नहीं, यहां गालियां संतुलित, सार्थक और सामंजस्य पूर्ण लगी। कुछ लोगों के वाक्यों में शब्द कम और गालियां ज्यादा होती है। यह इस बात का द्योतक है कि उनके पास अच्छे शब्द नहीं है, और हैं भी तो उनके चयन की शक्ति नहीं है। प्रेम भी ऐसे ही घातक रस है जिससे हो जाए उसकी गालियां भी रसीली लगती है। बनारस की गालियां सिद्ध करती है कि गाली रचने के लिए के भी बहुत रचनात्मकता चाहिए होती है। गालियों को केन्द्र में रखकर मुहावरे भी प्रचलित हैं। वैसे गाली शब्द नहीं नीयत में होती है गाली का एक वर्ग चरित्र होता है जो की क्रोध, अपमान और कभी-कभी प्रेम की अभिव्यक्ति भी होती हैं। गाली किसी लंबे उबाऊ वार्तालाप को एक झटके में खत्म करने का शार्टकट है या अपने मन की भड़ास निकालने का मुक्त किंतु गारण्टी शुदा इलाज हैं। वैसे गाली की अपनी एक अलग तासीर होती है और इसका अपना एक अलग जायका, तो जनाब परोसने से पहले चख जरूर लेना..........


रेंगता वक्त-भागता वक्त

स्टे्रट ड्राईव बाय सपन दुबे



बैतूल। टाइटन वॉचेस एडं वियरेबल्स (घड़ी निर्माता कंपनी) की सीईओ सुपर्णा मित्रा ने अपने एक नवीनतम साक्षात्कार में बताया कि अब लोग समय देखने के लिए नहीं बल्कि स्टाइल स्टेटमेंट के रूप में घडिय़ां पहनते हैं। याने की घड़ी भी जेवरात में शुमार हो गई हैं। वास्तविकता यह है कि मोबाईल के आने से घड़ी नाम की डिवाईस भी संघर्ष कर रही है। मोबाईल ने घड़ी के साथ वक्त, जिज्ञासाएं, फिटनेस और रिश्ते भी बिना डकार लिए निगल लिए हैं। आज उपहार के रूप में घड़ी दी जा रही है लेकिन वक्त नहीं। टाईम और टाईमिंग की महत्ता हर क्षेत्र में विद्यमान है। फिल्म मेरा नाम जोकर और लम्हें समय से काफी समय पहले रजतपट पर उतारने का खामियाजा उठाना पड़ा। मिस्बाह द्वारा खेले गए गलत टाईमिंग वाले शॉट ने भारत को विश्व विजेता बना दिया था। घड़ी कितनी भी मंहगी हो परन्तु वक्त कभी खरीदा नहीं जा सकता है। महाभारत के सूत्रधार हरिश भिमानी की आवाज मैं समय हूं आज भी कानों में गूंजती है पूरा धारावाहिक का केन्द्रीय पात्र समय था। जो बार-बार समय के बलवान होने की पुष्टी करता है। समय बलवान होता है तो गधा भी पहलवान हो जाता है। एक समय मोहम्मद अजहरउद्दीन की कप्तानी में सौरव गांगूली खेलने के लिए मशक्त करते थे एक समय आया मोहम्मद अजहरउद्दीन का बेटा असुद्दीन कोलकत्ता नाईट राईडर से खेलने की जुगत में सौरव गांगूली के समक्ष प्रस्तुत हुआ। विराट कोहली को एक जूनियर कैटेगिरी प्रतियोगिता में बतौर अतिथि आशीष नेहरा ने मैन आफ द मैच दिया था किसने सोचा था की आशीष नेहरा एक दिन विराट की कप्तानी में खेलेगा। कहावत है कि बुरा समय चल रहा हो तो जमीन पर बिछी चटाई से गिर कर भी चोट लग जाती है। बुरा समय लंबा हो जाए तो बुरे दौर में बदल जाता है। जिस सुपर स्टार अमिताभ बच्चन के पास फिल्मों की लाईन लगी होती थी और वे फिल्मों को रिजेक्ट कर देते थे। एक समय आया की उनके पास काम की कमी होने के कारण उन्होने स्वयं यश चोपड़ा से काम के लिए संपर्क किया था। जिसके बाद यश चोपड़ा ने उन्हें फिल्म मोहब्बतें में काम दिया। वक्त ने अच्छे-अच्छे तीसमारखां को धूल चटाई है। राजनीति में भी ऐसा ही होता रहा है लगातार चुनावों में हारे नेता के दरबार में सन्नाटा पसरा होता है। समय के प्रतिकूल होते ही चम्मचे सबसे पहले नदारद हो जाते हैं जैसे डूबते जहाज से चूहे कूद जाते हैं। नेता अपने प्रभावशाली दिनों की जुगाली करता रहता है परन्तु समय का दर्पण सही समय पर नहीं देख पाने के हर्जाने को अदा तो करता ही है साथ ही अपने ढलान को कभी समझ नहीं पाता है या यों कहें ही उसका दंभ उसे कभी समझने नहीं देता है।  90 के दशक में लगातार एक के बाद एक हिट फिल्में देने वाले गोविंदा चरित्र अभिनेता की भूमिका को स्वीकार्य नहीं कर पा रहें हैं। वे अभी भी स्वयं को हीरो के रूप में ही भूमिका करना चाहते हैं। इस कारण विगत वर्षो में उनकी लीड रोल में आई इक्का-दुक्का फिल्में बुरी तरह फ्लाप रहीं। वसीम अकरम ने वक्त पर एक लाजावाब बात कही थी, जब उनसे सन्यास के विषय में पूछा गया था तो उन्होने कहा कि जब सन्यास लो तब लोगों को पूछना चाहिए की इतनी जल्दी क्यों? अभी और खेल सकते थे। इससे मान-सम्मान बना रहता है। गोया कि सामाजिक सिद्धांत कहता है कि ससुराल में चंद दिन रूकना ही बेहतर होता है। फैसला करना मुश्किल होता है कि ज्यादा व्यस्त रहना परेशानी का सबब है या खाली रहना। कल समय मिलेगा यही हमारा सबसे बड़ा भम्र है। वक्त की सबसे ज्यादा कद्र सौ मीटर का धावक के पास होती है जिसका जीवन एक सैकेंड के सौंवे हिस्से में बदल जाता है। वक्त कुछ इलाकों में रेंग कर गुजरता है जहां जिस्म की बात नहीं हो और दिल तक जाना हो वहां सदिया भी लग जाती है। 


गुरुवार, 18 नवंबर 2010

                           सत्ता की संवेदनहीन मेडीकल रिर्पोट
                              स्टे्रट ड्राइव बाय सपन दुबे
फिल्म पीपली लाइव एक सवाल की 'भारत क्या अब भी आजाद है 'से शुरू होती है। फिल्म सत्ता और मिडीया की संवेदनहीन मेडीकल रिर्पोट है। जिसमें इनका बाकायदा एक्स रे और एमआरआइ किया गया है। फिल्म को कामयाबी आमीर खान के मीडास टच (मीडास के विषय में किवदंती है कि वो जिसको छू लेता था वह वस्तू सोने की हो जाती थी)के कारण मिली है। अन्यथा इस तरह की फिल्में समय समय पर आती रही है पर दर्शको का ध्यान इन पर नही जाता है। श्याम बेनेगल की वेलडन अब्बा लगभग इसी विषय पर बनी एक उत्कष्र्ठ फिल्म थी। निर्देशक अनुषा रिजवी ने इस फिल्म की सफलता के लिए सबसे पुख्ता इंतजाम हबीब तनवीर के थिएटर के कलाकारों को कास्टिंग करके किया। इंडियन ओशन ग्रुप से ये जो देश है मेरा गवाया गया है। लीक से हट कर किये गये चयन बताते है की फिल्म कितनी तैयारी से बनाई गयी है। इस फिल्म  की स्क्रिप्ट में संकेत के माध्यम से कई बातें कही गई है जैसे दो सेकेंड के दृश्य में कठपुतली का नृत्य दिखया गया है,गरीब मजदूर होरी की मृत्यु को छोड़कर मीडीया टीआरपी के लिये जिंदा नत्था के कवरेज को देता है। राज्य सरकार और केन्द्र सरकार के बीच पिस कर कैसे योजनायें दम तोड देती है। फकत मंहगाई सरकार की एक मात्र योजना है जो हर गरीब तक पहुचती है। भ्रष्टाचार की चक्की से राजनेता जनता को बेहद महीन पीस रहे है। जापान एक मात्र ऐसा देश है जहां पर पोॅलिटीकल कार्टूनीस्ट नहीं है। कारण यह है कि वहां पर भ्रष्टाचार नहीं है। भ्रष्टाचार कार्टूनीस्ट की खुराक होता है। भारत में मंहगाई के लिए  भ्रष्टाचार सबसे बड़ी वजह रहा है। इसी वजह से भारत में पोॅलिटीकल कार्टूनीस्ट की भरमार रही है। इस फिल्म के एक दृश्य में नत्था को गांव का एक बुजूर्ग समझाइस देता है की यहां जी ते जी तो सरकार कुछ देती नही है भला मरने पर किसान को क्या देगी? इस फिल्म को कुछ कलम घसयारे आर्ट फिल्म समझने की भूल कर रहें है। फिल्म  या तो अच्छी होती है या बुरी, आर्ट या व्यवसायिक नहीं होती है। पीपली लाइव के संवाद बेहद सैधांतिक है। एक दृश्य में गांव का एक आदमी न्यूज चैनल को बाइट देता है कि नत्था के कारण हमारे गांव में मेला लगा है और चार पैसे की आमदनी हो रही है। फिल्म में कहीं कहीं गाङ्क्षलयों का इस्तमाल हुआ है। जो वाजिब और तर्क संगत लगता है। किसान के बाप दादाओं की जमीन जब कुर्क होती है तब वह प्रोफेसरों की तरह बात नहीं कर सकता है। वैसे भी गालियां भारत में आम लोगों मेंं जोश को संचार करने का नायब तरीका है। भारतीय गालियों के माध्यम से अपने गुस्से को बहार फेंक देतें है। बिगड़ी हुई सरकारी व्यवस्था के कारण गालियां स्वभाविक लगने लगी है। इस फिल्म के बाद हो सकता है मंहगाई और किसान की आत्महत्या  जैसे मुद्दो को चुनावों में शामिल किया जाये, और उन पर संजीदगी से विचार हो। यह फिल्म पूरे तंत्र को नींद से उठाकर झकोरने का काम करती है।
      
                              तर्क वितर्क और सफल फिल्में
                               स्टे्रट ड्राइव बाय सपन दुबे
    अब कुछ ही फिल्मों प्रदर्शन से पहले दर्शकों के मन में जिज्ञासा पैदा कर पाती है। काइट्स, द्रोण , रावण और आग जैसी बड़ी फिल्मेंा को पूर्व जिज्ञासा नहीं होने के कारण रिलीज से पहले ही असफल मान लिया गया था। कुछ फिल्मों विवाद के कारण जिज्ञासा पैदा कर देती है, माय नेम इ्ज खान उनमें से एक थी। बीते कुछ वर्षो में गजनी, पिपली लाईव के बाद दबंग ही ऐसी फिल्म है जिसे प्रदर्शन पूर्व ही तीव्र सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली। दबंग एक विचित्र प्रकार से गढ़ गई फिल्म है। दबंग में तर्क का कोई स्थान नहीं है। यह सत्तर के दशक की फिल्म की तरह है जिसमें जिसमें तर्क की कोई जगह नहीं होता है। गोया की कई दफा तर्कविहीन नाखून और दंत गहरी छाप छोड़ देते है। फिल्म अमर अकबर ऐंथोनी के  क्लाईमेक्स में तीनों नायक खलनायक के अड्डे पहूंच कर खुद को उजागर नहीं करनें की गरज से भेष बदल लेतें है की खलनायक उनकों पहचान ना ले, लेकीन गीत गातें है की एक जगह जब जमा हो तीनों, अमर अकबर, ऐंथोनी। मानो यह गीत फकत दर्शकों को सूनाया जा रहा है, और खलनायक बहरा हो गया है। दरअसल इस तरह का हाई वोल्टेज ड्रामा इस तरह से महिमा मंडित होता है की दर्शक तर्क को खारिज कर देतें है। जिसमें फिल्म का नायक सुपरमैन की तरह शक्तीशाली होता है।  फिल्म दबंग का नायक चुलबुल पांडे एक हसोंड दबंग है। जो स्वयं को राबिनहुड पांडे कहता है।  यह किरदार सलमान की व्यक्तीगत जिंदगी से मेल खाता है। सलमान सीमित अभिनय क्षमता वाला अभिनेता है। सलमान के पं्रसशक शायद उससे अभिनय की उम्मीद भी नहीं करते। सलमान  की हसोड़ और दबंगाई ही उन्हें भाती है, और इस फिल्म में दोनो ही मौजूद है। नवोदित तारिका सोनाक्षी सिन्हा की अदाकारी जानदार है। सोनाक्षी ग्लैमरस फिगर नहीं है किंतु वो संवाद बोलने के लिए आंखो का इस्तमाल करती है। भविष्य में सोनाक्षी से अपार संभावनायें है। फिल्म का खलनायक सोनु सूद नहीं जम पाये। सोनु अपनी मुम्बईया माडल वाली छवी में ही गोते लगाते रहे। ऐसी फिल्में अक्सर खालिस ऐक्शन बन कर रह जाती है। जो दिमाग को भारी कर देती है। दंबग में इस ऐक्शन के ऊपर हास्य हो तरहीज देकर रोचक बना दिया है। फिल्म दो गीत मुन्नी बदनाम हूई और तेरे मस्त मस्त दो नैन लोकप्रिय हो चुकें है।  तेरे मस्त मस्त दो नैन राहत फतह अली ने गाया है जो लम्बे समय तक सूनाई देगा। मुन्नी बदनाम हुई गीत पर इसी कालॅम में एक लेख लिखा जा चुका है। फिल्म का पहला गीत वो है दबंग उ०प्र० के लोकगीत से उठाया गया है। यह गीत ओकंारा रे की तरह प्रतीत होता है। दरअसल उ०प्र०के लोकगीत वीर रसप्रधान है। फिल्म में संवाद युवाओं को खासे पसंद आयेंगे। दबंग को ओपनिंग तो जबरदस्त मिली है। देखना होगा की दबंग की दबंगाई बाक्स आफिस पर कब तक चलती है।